Sunday, May 08, 2005

दो कविताएँ

आधुनिक अभिमन्यु

कच्ची उम्र के
अबोध बालक को
भ्रष्टाचार करते देख
हैरानी हुई
पता लगाया
भेद खुला
माता के गर्भ में ही
वह इसका किस्सा सुन चुका था
और भ्रष्ट आचार में वह
आधुनिक अभिमन्यु बन चुका था।

***




महँगाई
शहर के
बाज़ार में
वस्तुओं के
दाम पूछते
नास्तिक के
मुँह से निकला
" हे भगवान"!
***
**(भास्कर तैलंग )

1 Comments:

At 5:39 AM, Anonymous Anonymous said...

aapki kavitayin achchi lag rahi hain. badhayi
nitygopal katare

 

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