Sunday, May 08, 2005

हाइकु

हमें सिखाती
नए नए सबक
असफलता ।


सँभाले रहो
नाज़ुक बड़ी होती
साँसों की डोर ।

घना अँधेरा
हरदम चीरता
नन्हा चिराग ।


जीवन अर्थ
काँटों खिला गुलाब
हमें सिखाता ।

झूठ के अस्त्र
कैसे जीतेंगे भला
सत्य का युद्ध ।

किस दर्जी ने
यह गगन सिला
टाँका नहीं है ।


हर ईसा को
इस धरती पर
सूली मिलती ।


साँझ होते ही
घर लौट आते हैं
उड़ते पंक्षी ।


एकान्त में
लगने लगते हैं
यादों के मेले ।

***


भास्कर तैलंग

1 Comments:

At 12:18 PM, Anonymous Anonymous said...

किस दर्जी ने.......
वाह क्या सुन्दर तरीके से बात कही है। ब्लाग बहुत सुन्दर बना है। कुछ कविताएँ और दीजिए।
डॉ॰ के॰ राम्मैया, सुरीनाम

 

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