Sunday, May 08, 2005

भास्कर तैलंग

bhasker taleng
25 फरवरी 1938 को दतिया म.प्र. में जन्में श्री भास्कर तैलंग म. प्र. के शासकीय महाविद्यालय के प्राचार्य के पद से सेवा निवृत्त होकर वर्तमान में शिक्षा विभाग से जुड़े हुए हैं और साहित्य सृजन कर रहे हैं । हिन्दी कविता और विशेष रूप से हाइकु कविता में आपकी विशेष रुचि है । आपकी कविताएँ देश भर की पत्र–पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं । आपके प्रकाशित हाइकु संग्रह हैं—
मन बंजारा
मकड़जाल
स्थानीय साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय रहने वाले श्री तैलंग जी के हाइकु अनुभूति अन्तर्जाल पर प्रकाशित हुए हैं।

सम्पर्क सूत्र-
विक्रम नगर रसूलिया
होशंगाबाद [म॰प्र॰] 461001

दूरभाष- 07574-255317


हाइकु

हमें सिखाती
नए नए सबक
असफलता ।


सँभाले रहो
नाज़ुक बड़ी होती
साँसों की डोर ।

घना अँधेरा
हरदम चीरता
नन्हा चिराग ।


जीवन अर्थ
काँटों खिला गुलाब
हमें सिखाता ।

झूठ के अस्त्र
कैसे जीतेंगे भला
सत्य का युद्ध ।

किस दर्जी ने
यह गगन सिला
टाँका नहीं है ।


हर ईसा को
इस धरती पर
सूली मिलती ।


साँझ होते ही
घर लौट आते हैं
उड़ते पंक्षी ।


एकान्त में
लगने लगते हैं
यादों के मेले ।

***


भास्कर तैलंग

दो कविताएँ

आधुनिक अभिमन्यु

कच्ची उम्र के
अबोध बालक को
भ्रष्टाचार करते देख
हैरानी हुई
पता लगाया
भेद खुला
माता के गर्भ में ही
वह इसका किस्सा सुन चुका था
और भ्रष्ट आचार में वह
आधुनिक अभिमन्यु बन चुका था।

***




महँगाई
शहर के
बाज़ार में
वस्तुओं के
दाम पूछते
नास्तिक के
मुँह से निकला
" हे भगवान"!
***
**(भास्कर तैलंग )

दो कविताएँ

त्याग

कौन कहता है
कि हमने
छोड़ दी हैं
अपनी पुरानी परम्पराएँ
मसलन त्याग को ही लें
आज नेताओं ने
अनुशासन त्याग दिया है
व्यापारियों ने–
ईमान त्याग दिया है
छात्रों ने–
पढ़ना त्याग दिया है
शिक्षकों ने–
पढ़ाना त्याग दिया है
आधुनिकाओं ने–
वस्त्रों को त्याग दिया है
विधायकों ने–
दलों को त्याग दिया है
मतलब
सभी ने
कुछ न कुछ त्याग दिया है।
और इसलिए
वे सभी–
हमारी श्रद्धा के पात्र हैं।

***

हड़ताल
एक प्रसिद्ध
ताला बनाने वाली कम्पनी ने
सफल परीक्षणों के बाद
एक विलक्षण ताला बनाया
अब समस्या थी–
नाम की
तभी किसी ने सुझाया
आज के प्रचलित
चलन के अनुरूप
इसका उपयुक्त नाम रहेगा
हड़ताल।
***
- भास्कर तैलंग

दोहे

प्रश्न बनी है ज़िन्दगी‚ उत्तर देगा कौन।
जिनसे भी हैं पूछते‚ हो जाते हैं मौन।।

दोराहे पर हैं खड़े‚ चलें कौन सी राह।
राह वही अपनाइए‚ मन में जिसकी चाह।।

समय बनाये रंक या‚ दे सोने की खान।
समय बड़ा बलवान है‚ बस इतना तू जान।।

इतना ही बस जानिए‚ यही है जग की रीति।
अगर समय विपरीत है‚ नहीं है कोई मीत।।

रही पुराने समय से‚ बड़े बड़ों की राय।
संयम कभी न खोइये‚ चाहे कूछ हो जाय।।

संचय से बढ़कर यहाँ‚ सदा रहा है दान।
सोने–चाँदी से अधिक‚ मूल्यवान है ज्ञान।।
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  • मुहावरेदार कविता


  • आज की राजनीति का खेल
    छछूँदर के सिर में–
    चमेली का तेल ।
  • देश की हालत का क्या रोना
    न ऊधों का लेना
    न माधो का देना ।
  • मँहगाई की मँहगाई
    ऊपर से टैक्स बढ़ा
    करेला और नीम चढ़ा ।


  • भ्रष्टाचारी बाग में
    ईमानदारी की सुगंन्ध
    दाल भात में मूसलचंद
--000--


**:: -भास्कर तैलंग

Friday, May 06, 2005

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